Moksharthi Pariwar
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श्री समयसार (१९७८) प्रवचन नं. १०४ गाथा ३६ श्लोक ३०
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श्री समयसार (१९७८) प्रवचन नं. ४२ गाथा ११
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श्री समयसार (१९७८) प्रवचन नं. १०४ गाथा ३६ श्लोक ३०
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०५२० लोगों का रंजन करने के लिए जो उपदेश देते हैं वह पाखंडी है ! वह नरक में जाएगा !
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०५१९ आत्मार्थि को अंतर में द्रव्यानुयोग उत्पन्न करना और बाह्य में द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय करना !
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०५१८ विपरीत दृष्टि करावे ऐसे कुसंग — कुटुंब, परिवार, शहर छोड़ देना चाहिए !
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०५१७ दुःख क्या है ? और सुख क्या है ? कैसे जीवों का संग करना चाहिए ?
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०५१६ व्यवहार सहचर कारण होते हुए भी संसार का कारण🤔⁉️व्यवहार,पर्याय गौण पूर्वक झुटा?
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०५१५ जिनवाणी में व्यवहार का उपदेश आया है, लेकिन उसका फल संसार है ! व्यवहार जगपंथ है !
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श्री समाधितंत्र (१९७५) प्रवचन नं. ७१ श्लोक ५६-५७
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श्री समाधितंत्र (१९७५) प्रवचन नं. ४० श्लोक ३१-३२
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श्री नियमसार (१९७९) प्रवचन नं. ९० गाथा ८९ श्लोक ११९-१२०
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श्री नियमसार (१९८०) प्रवचन नं. १२९ श्लोक १७३-१७५
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श्री वचनामृत (१९७८) प्रवचन नं. ६४ बोल नं.१७५-१७६
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श्री समयसार (१९७९) प्रवचन नं. ३४३ गाथा २७८-२७९ श्लोक १७५-१७६
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श्री योगसार (१९६६) प्रवचन नं. १३ दोहा ३२ से ३४
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श्री नियमसार (१९८०) प्रवचन नं. १९८ गाथा १६७ श्लोक २८२
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श्री अष्टपाहुड (१९७०) प्रवचन नं. ८८ गाथा ६५ से ६९
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०५१४ द्रव्य रुचिकर जीवड़ा, भाव रुचिकर हीन, उपदेशक पन तेहवा, क्या करे जीव नवीन ?!
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०५१३ मोह कर्म मम नाही नाही भ्रम कूप है, शुद्ध चेतना सिंधु हमारो रूप है !
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०५१२ उपयोग में पुण्य-पाप की मलीनता दिख रही है वह मेरी नहीं है, वह तो जड़ कर्म की मलीनता है !
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०५११ चैतन्य का व्यक्तपना तो जानना देखना है ! राग विकार है वह चैतन्य का व्यक्तपना नहीं है !
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०५१० तीर्थंकर प्रकृति का बंध किस जीव के होता है ?
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०५०९ सम्यक् दर्शन में रुकावट कौन ? — जीव का मान और मिथ्यात्व के मोह परिणाम !
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०५०८ वीतराग जैनशासन क्या है ? “मान” ना होता तो यहीं मोक्ष होता ! “मान” संसार का कारण है !
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०५०७ क्या तू चोर है - उठावगिर है जो कहता है कि पर्याय मेरी है ?
Moksharthi Pariwar
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०५०६ धर्मी जीव मति-श्रुतज्ञान की धारा में क्या विचारणा करता है ? — एगो मे सस्सदो अप्पा !
Moksharthi Pariwar
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०५०५ इंद्रियज्ञान ज्ञान नहीं है ! सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की पर्याय में आत्मा है !
Moksharthi Pariwar
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०५०४ भगवान की वाणी और भगवान भी इंद्रिय का विषय है ! इनका लक्ष्य छोड़े वह सम्यक् दृष्टि जीव है !
Moksharthi Pariwar
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०५०३ प्रभु तेरेमें शरीर वाणी मन नहीं, कर्म नहीं, विकार नहीं, अरे! ध्यान की निर्विकार पर्याय भी नहीं!
Moksharthi Pariwar
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