कुछ कह न सके कुछ सुन न सके, हमने जुबां ही खोली थी, वां आंख झुकी | Asrar ul Haq Majaz | Urdu Poetry |
Sunil Batta Films Sunil Batta Films
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 Published On Jul 16, 2019

‎ Channel- Sunil Batta Films
Documentary- Asrar ul Haq Majaz
Produced & Directed by Sunil Batta, Voice- Navneet Mishra, Script- Yogesh Praveen, Music- Anjani Tiwari & Krishan Swaroop, Camera-Chandreshwar Singh Shanti, Singer- Anjani Tiwari, Production- Dhruv Prakesh, Camera Asst.- Runak Pal, Kuldeep Shukla.

Synopsis -
खुद दिल में रह के आँख से परदा करे कोई,
हाँ, लुत्फ जब है, पा के भी ढूंढा करे कोई।
मुझको ये आरज़ू, वो उठाएँ नकाब खुद,
उनको ये इन्तिज़ार, तकाज़ा करे कोई।
ये अशयार मजाज लखनवी की एक गज़ल का हिस्सा है।
सच तो ये है कि रोमांच के साथ जितनी तड़प मजाज ने पैदा की, उतनी शायद ही किसी के नसीब में आयी हो। मजाज 2 फरवरी 1909 ई0 को लखनऊ के समीप कस्बा रूदौली जिला बाराबंकी में पैदा हुये थे। वही पर इब्तेदाई तालीम हासिल की और शहर-ए-लखनऊ से मैट्रिक पास करने के बाद वह आगरा चले गये। आगरा में उन्होंने दो साल क़याम किया। सेन्टजान्स कालेज से इण्टरमीडिएट का इम्तेहान देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ वालों ने उनका पुरजोर ख़ैरमकदम किया।
अलीगढ़ का माहौल मजाज़ की तबियत के ऐन मुताबिक़ था क्योंकि अलीगढ़ हर दौर में एक ऐसा तालीमी मरकज़ रहा है जिसने सिर्फ इम्ल-ओ-अदब को ही नहीं फरोग़ दिया बल्कि अपने दामने फैज़ से हिन्दुस्तान को नामवर शायर, अदीब और नक़्का़द अता किये।
मजाज़ तक़रीबन पांच साल तक अलीगढ़ में रहे और यह दौर मजाज़ की जिन्दगी का ज़रीन दौर था जो उनके ज़हनी और फिकरी इरतेक़ा के लिहाज से भी काफी अहम है। हर महफिल में उसके चर्चे थे हर दिल पर मजाज़ की खूबसूरत व पुरकशिश आंखों का नक़्श था और हर दिमाग़ पर उसके आहंग का सुरूर।
हम अर्जे वफा भी कर न सकें, कुछ कह न सके कुछ सुन न सके,
यां हमने जुबां ही खोली थी, वां आंख झुकी शर्मा भी गये।
फिर मजाज ने अलीगढ़ से इण्टर किया और 1936 ई0 उन्होंने बी0ए0 किया और उसी समय रेडियो की पत्रिका ‘‘आवाज’’ के सम्पादक होकर दिल्ली चले गये। सन् 1935-37 तक दिल्ली रेडियो के उर्दू पत्र ‘‘आवाज़’’ का सम्पादन किया। सन् 1939 ई0 में सिब्ते हसन और सरदार जाफरी के साथ ‘‘नया अदब’’ नामक मासिक आरम्भ किया। ‘‘मजाज’’ की प्रगतिशील रचनाओं के पीछे भी एक रोमानी चेतना थी। मजाज़ साहब महज़ एक शायर ही नहीं बल्कि एक अहद की आवाज़ थे मगर इस आवाज़ को ज़माने के नशेबो-फराज़ ने एक मय-ख़्वार की आवाज़ बना दिया। ‘इश्क़ ही इश्क़ है दुनिया मेरी’ कहने वाले अलीगढ़ के इस हस्सास शायर को तमाम उम्र किसी आंचल का साया मयस्सर न हुआ। मायूसियां इस हद तक बढ़ी कि शायर "महफिले वफा मुतरिब बज़्में दिलबरा" यह कहने पर मजबूर हो गया -
‘‘जी में आता है कि अब अहदे वफा भी तोड़ दूं,
उनको पा सकता नहीं यह आसरा भी तोड़ दूं।
इस मशहूर -ओ-मारूफ शायर का इन्तेकाल 6 दिसम्बर, 1955 ईस्वी को शहर-ए-लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में हुआ उनकी कब्र निशातगंज इलाके के कब्रिस्तान में वाक़्ये है।
ऐ गमे दिल क्या करूँ
ऐ बहशते दिल क्या करूँ
ये रूपहली शाम, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफी का तसव्वर, जैसे आशिक़ का ख्याल
हाय लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ गमे दिल क्या करूँ
ऐ बहशते दिल क्या करूँ
रास्ते में रूक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
छोड़ कर मंजिल चला जाऊँ मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवाँ मिल जाये ये किस्मत नहीं
ऐ गमे दिल क्या करूँ
ऐ बहशते दिल क्या करूँ


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